स्क्लेरोडर्मा त्वचा पर बुरा असर छोड़ने वाली ऑटोइम्यून बीमारी है। इससे शरीर का रोग प्रतिरोधी तंत्र अधिक सक्रिय होने के कारण अन्य अंग व ऊतकों में समस्याएं बढ़ जाती हैं। भारत में लगभग एक करोड़ लोग इससे ग्रस्त हैं जिसमें 30-50 वर्ष की महिलाएं ज्यादा शामिल हैं।
ऐसे पहचानें रोग -
इसके कारण शरीर के विभिन्न हिस्सों पर बाहरी रूप से त्वचा मोटी और सख्त हो जाती है। साथ ही इनमें जलन व घाव होते हैं। इससे रक्तवाहिकाएं, फेफड़े, पेट, किडनी, हृदय, आंतों और अन्य अंगों में समस्या पैदा हो सकती है। जुड़वा बच्चों या जिन्हें इस रोग की फैमिली हिस्ट्री हो उनमें इसकी आशंका रहती है।
तीन तरह से होता नुकसान -
लोकलाइड स्क्लेरोडर्मा : शरीर के निश्चित हिस्से पर यह सिर्फ त्वचा पर रंगहीन पैच (मोर्फिया स्थिति) बनने जैसा दिखता है। जो कि हाथ की कलाई से लेकर कोहनी तक ज्यादा होता है। इसके अलावा बांहों, टांगों, चेहरे व माथे पर भी त्वचा कठोर हो जाती है।
डिफ्यूस्ड स्क्लेरोडर्मा : शरीर के बाहर और अंदर त्वचा कठोर और रूखी हो जाती है। इसमें इस कारण अंगों में सिकुडऩ आती है।
सिस्टमेटिक स्क्लेरोडर्मा: यह रोग का गंभीर रूप है। यह शरीर के अंदरुनी अंगों, उनकी कोशिकाओं और ऊतकों को नुकसान पहुंचाता है। खासतौर पर फेफड़ों की सतह कठोर होने लगती है। जिससे सांस लेने में दिक्कत होती है व सूखी खांसी आती है। फेफड़ों से जुड़ी इंटरस्टिशियल लंग डिजीज के ज्यादातर मामलों में यह एक अहम कारण बनकर उभरता है।
इलाज -
विशेषज्ञ रोग की गंभीरता और मरीज की स्थिति देखकर दवाएं देते हैं। इनमें रोग प्रतिरोधक तंत्र को मजबूत बनाने के लिए इम्युनोसप्रेसेंट दवाएं देते हैं। आधुनिक इलाज के रूप में बायोलॉजिक्स दवाएं देते हैं।
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